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वर्षा / अमरजीत कौंके
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वर्षा जब बाहर होती
तो कैसे निखर जाता
धीरे धीरे आकाश
प्यासी धरती
भीतर तक अघा जाती
वृक्षों के पत्ते
धुल कर हो जाते नए नवेले
पवन सुगंधित होता
काश !
वर्षा ऐसी
कभी इन्सान के
भीतर भी हो पाती.... !!!
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा