Last modified on 3 अप्रैल 2011, at 00:48

अछूत का इनार-8 / मुसाफ़िर बैठा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:48, 3 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुसाफ़िर बैठा |संग्रह=बीमार मानस का गेह / मुसाफ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चापाकल के इस जमाने में
अब अवशेष भर रह गया है इनार
दादी के इस आत्मरक्षक इनार का भी
न कोई रहा पूछनहार देखनहार
कब से सूखा पेट इसका
भर गया है अब
अनुपयोगी खर पतवार झाड़न बुहारन से

कुछ भी रहा नहीं अब शेष
दादा दादी की काया समेत
निःशेष है तो बस
इनार की जगत पर खुदा दादा का नाम
और उसके जरिए याद आता
दादी का पूंजीभूत क्रांतिदर्शी यश काम ।

2007