भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाँद / आलोक श्रीवास्तव-२

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:07, 5 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(१)

आज अचानक चांद दिख गया
समूचा रुपहला चांद

नवंबर की एक आधी रात का
यह चांद
किसी की याद है

धानी लिबास में लिपटा
एक चेहरा है
दूर जाता हुआ
समय में ।

(२)

तुम्हारे चेहरे को
इस चांद की साक्षी में
हथेली में थाम कर चूमना चाहता था

पूरे चांद की यह कैसी रात है
कि उस चेहरे का दिखना तक
अब मुहाल नहीं !