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साठ साल के धूप-छाँही रंग-1 / विद्याभूषण

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काग़ज़ पर शब्द लि‍ख कर सोचता हूँ
सार्थक हो गया अपना अनकहा,
फागुन से जेठ तक
हर मौसम में भला-बुरा जो भी सहा ।

सपनों से अनि‍द्रा तक
चुंबन बरसाती अदाओं के तोरण द्वार
सजा कर
अस्तित्व को घेरते रहे कुछ शब्द-
रंग, गंध, स्पर्श, स्वाद,
सुख, आनन्द, उत्सव, समारोह,
सेहत, जवानी, रूप-सौन्दर्य,
मधु, मदि‍रा, सुधा,
वक्ष, होंठ, कदलि-‍वन,
आकाश, क्षि‍ति‍ज, शून्य,
आत्मीय, संगी, मित्र, प्रशंसक,
ख़रीदार, दरबारी, पुजारी,
पहचान, सम्मान, जय-जयकार,
भ्रान्ति, दि‍वास्वप्न, मि‍थ्या वि‍स्तार ।

यह सतरंगी जि‍ल्दोंवाली डायरी
पलट कर देखता हूं जब भी फ़ुरसत में,
अंधे एकान्त का अक्स
खुल जा सि‍म-सि‍म की तर्ज पर
खुलता है यकायक ।
अजन्ता-एलोरा के मादक रूपांकन,
कोणार्क के सुगठि‍त प्रस्तर शि‍ल्प
और मांसल चैनलों के वर्जनामुक्त दृश्य
मन के राडार पर अंकि‍त हो जाते हैं
ख़ुद-ब-ख़ुद ।

इस दि‍लकश संचि‍का को
बचाए रखने की जुगत नहीं थी अपनी,
फि‍र भी जाने कैसे
मन के नामालूम अँधेरों में
वर्षों छि‍पती रह कर
वह जीवि‍त रही है
और बदराए मौसम में कभी-कभी
लपटीली इबारतों के साथ
मेरे चश्मे पर घि‍रती रही है ।