भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मृत्यु / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:47, 6 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे जन्म के साथ ही हुआ था
उसका भी जन्म

मेरी ही काया में पुष्ट होते रहे
उसके भी अंग

मैं जीवन भर सँवारता रहा जिन्हे
और खुश होता रहा
कि ये मेरे रक्षक अस्त्र हैं
दरअसल वे उसी के हथियार थे
अजेय आजमाये हुए

मैं जानता था
कि सब कुछ जानता हूँ
मगर सच्चाई यह थी
कि मैं नहीं जानता था
कि कुछ नहीं जानता हूँ

मैं सोचता था फतह कर रहा हूँ किले पर किले
मगर जितना भी और जितना भी बढ़ता था
उसी के करीब और उसी दिशा में
वक्त निकल चुका था दूर
जब मुझे उसके षडयन्त्र का अनुभव हुआ

आखिरी बार
जब उससे बचने के लिए
मैं भाग रहा था
तेज और तेज
और अपनी समझ से
सुरक्षित पहुँच गया जहाँ
वहाँ वह मेरी प्रतीक्षा में
पहले से खड़ी थी
मेरी मृत्यु!