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जीकर देख लिया / शिव बहादुर सिंह भदौरिया
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जीकर देख लिया
जीने में
कितना मरना पड़ता है
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सबमें रहती है
किन्तु ज़िन्दगी अनुबंधों के
अनचाहे आश्रय गहती है
क्या-क्या कहना
क्या-क्या सुनना
क्या-क्या करना पड़ता है
समझोतों की सुइयाँ मिलतीं
धन के धागे भी मिल जाते
संबंधों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं सिल भी जाते
सीवन,
कौन कहाँ कब उधड़े
इतना डरना पड़ता है
मेरी कौन बिसात यहाँ तो
संन्यासी भी साँसत ढोते
लाख अपरिग्रह के दर्पण हों
संग्रह के प्रतिबिंब संजोते
कुटिया में
कौपीन कमंडल
कुछ तो धरना पड़ता है