भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नदी फिर नहीं बोली / माया मृग

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:38, 11 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नदी पहली बार
तब बोली थी
जब तुम्हारी नाव
उसका पक्ष चीरकर
सुदूर बढती गई थी,
लहरों ने उठ-उठ विरोध दर्शाया
पर तुम्हारे मज़बूत हाथों में थे
चप्पुओं ने विरोध नहीं माना,तब तुमने
लौह का, विशाल दैत्य-सा
घरघराता जहाज उसकी छाती पर उतार दिया,
तुमने खूब रौंदा
उसकी कोमल देह को।
लहरों के हाथ
दुहाई में उठे पर
तुमने नहीं सुना।
फिर कितने ही युद्धपोत
कितने ही जंगी बेड़े
इसके अंग-अंग में बसा
इसकी देहयष्टि को
अखाड़ा बना, क्रूर होकर
पूछा तुमने,
बोलो!क्या कहती हो?
नदी नहीं बोली
नदी फिर कभी नहीं बोली ।