चिड़ियों के साथ-1 / मीना अग्रवाल
घर का एकाकी आँगन
और अकेली बैठी मैं
बिखरे हैं सवाल ही सवाल
जिनमें उलझा
मेरा मन और तन !
अचानक छोटी-सी गौरैया फुदकती हुई आई
न तो वह सकुचाई और न शर्माई,
आकर बैठ गई पास रखे एलबम पर
शायद दे रही थी सहारा
उदास मन को ! मैंने एलबम उठाई
और पलटने लगी धुँधले अतीत को
खोलती रही पन्ना- दर- पन्ना डूबती रही पुरानी यादों में !
मुझे याद आईं अपनी दादी
जिनका व्यक्तित्व था सीधा-सादा
पर अनुशासन था कठोर
उनके हाथों में रहती थी
हमारी मन¬-पतंग की डोर
जिनके राज में लड़कियों को नहीं थी
पढ़ने-लिखने की या फिर खेलने की आज़ादी
जब भी पढ़ते-लिखते देखतीं
पास आतीं और समझातीं
”अपने इन अनमोल क्षणों को मत करो व्यर्थ
क्योंकि ज़्यादा पढ़ने-लिखने का
बेटी के जीवन में नहीं है कोई अर्थ,
और फिर पढ़-लिखकर
विलायत तो जाएगी नहीं
घर में ही बैठकर
बस रोटियाँ पकाएगी !’
लेकिन मैं चुपके-चुपके
छिप-छिपकर पढ़ती रही
आगे बढ़ती रही
और एक दिन चली गई
विदेश-यात्रा पर
दादी आज नहीं हैं
पर सुन रही होंगी मेरी बातें
वो अपनी पैनी दृष्टि से
देख रही होंगी मेरी सौगातें !
चिड़िया उड़ी और
बैठ गई मुँडेर पर
देने लगी दाना
अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को !