पत्ते पेड़ के / मीना अग्रवाल
पेड़ अपनी बाँहें फैलाए
कह रहे हैं कहानी
अपनी ही जुबानी !
सहनी होगी धूप
रहना होगा आँधी में भी
अडिग और स्थिर,
आएँगे झंझावात
उन्हें भी होगा सहना,
होगी धैर्य की परीक्षा
उसमें भी होना होगा उत्तीर्ण,
फैलानी होंगी बाँहें
और भी विस्तीर्ण !
पत्तों ने सुनीं और मन में गुनीं
पेड़ की बातें
हुईं अनेक मुलाक़ातें !
पत्ते बोले,
लगता है हमारी तपस्या
हो गई है अब पूरी
धरती से मिलन में
अब नहीं है दूरी,
हमने तो सहे हैं
सदा लू के थपेड़े,
गर्म हवाओं में भी
हम हिल-मिल खड़े हैं,
बारिश के जल में धोकर मन को
हमने किया है निर्मल,
तूफानों से भी हम
साहस के साथ लड़े हैं,
अब है हमारी बारी तुमसे अलग होने की
हम जाएँगे
करेंगे तुम्हारा बोझ हलका वैसे भी
किसी को नहीं है पता
आने वाले कल का !
यदि फिर कभी बुलाओगे हमें
आएँगे हम
पत्तियों के रूप में
बनकर नन्ही-नन्ही कोपलें
लुभाएँगे सबके मन को
बनेंगे बृहदाकार,
देंगे राहत
धूप से तपते जन को,
और यात्रा से आहत
जीवन को,
मिलकर करेंगे
हवा के झोंकों के साथ
तन-मन को शीतल !
आज है ज़रूरत
मानव के क्रूर हाथों से
हरियाली के अस्तित्व को बचाने की
जिससे बढ़ सके
पेड़ों-पौधों की वंशावली,
हरी-भरी धरती को
मिल सके सुकून,
वह सो सके चैन से
हो सकें सपने पूरे !
तब आहत मानव-मन
पाएगा राहत,
ओढ़कर हरी चुनरिया
प्रकृति सुंदरी
सुंदरी करेगी जब नर्तन
सभी होंगे ख़ुशहाल
टूट जाएगा मानव-मन का इन्द्रजाल !