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श्रवण कुमार की रिक्तता में / प्रमोद कुमार

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मेरे पिता को श्रवण कुमार की कहानी
दिखा गये थे मेरे बाबा
मेरे बाबा को मेरे परबाबा
और परबाबा को उनके

अपनी कहानी के साथ
जीवित रहे श्रवण कुमार
एक श्रवण से इस सदी तक घर में उपस्थित रहे
मेरे परबाबा, बाबा, पिता
उसी श्रवण कुमार से पला मेरा बचपन

मेरे पिता ने वह आजमाई हुई कहानी मुझे दिखाई
श्रवण कुमार को मुझमें उन्होंने देखा
और मैंने अपने में

मैं देखता बड़ा हुआ
श्रवण कुमार के लिए
अपने कलेजे को फाड़कर मेरे पिता बहाते रहे
मेरी ओर आशीर्वादों की बारहमासी नदी

वह दरकते खेतों में खड़े हो जाते
मैं भरे मेघ-सा उन्हे दिखता
होली में भर-भर मुट्ठी
रंग-सा वह उठाते मुझे
डालते गाँव वालों पर लाल रंग
और ठहाके लगाते - टहटह लाल !

वह हँसते हुए हर पल जीते
और श्रवण कुमार को देख
हँसते-हँसते किसी भी पल चले जाने को तैयार रहते,

वह गाँव से शहर की दूरी को केवल कोसों में नापते
जब भी आते मेरी ओर
यहाँ की पल-पल पिघलती जमती सड़कों पर
खोजते आते मेरे पाँवों के निशान
ज्योंही बहंगीं का कोई चिन्ह दिख जाता
भर जाता उनका छोटा पेट और बड़ा मन

चले गए मेरे पिता
वह जीवन की शाम में छटपटा रहे थे कि
क्यों नहीं लौट रहा है जाँचा-परखा श्रवण कुमार
उनके सामने नहीं आई
आज के शिकारियों की क्रूरता
और न सुनाई पड़ी उनकी पदचाप
मेरे पिता नहीं दे पाए
श्रवण कुमार के हत्यारों को कोई शाप

मेरी आँखों के सामने
उदास और श्रवण कुमार के मुहावरे को होठों पर दबाए
चुप
मरे मेरे पिता
मेरे देखते मरा मेरे खानदान का श्रवण कुमार
वह मरा जो परिवार में नश्वर था
वह उठ गया जो पीढ़ियों के बीच कड़ी था

मेरे ही सामने से गुज़रा
वह विध्वंसक दिन
अपने जन्म पर मैंने ही सुना था पूर्वजों से सोहर
केवल मैं ही सुन रहा उनकी चुप्पी
गूँज रहा मेरे ही कानों में रिक्तता का हाहाकार

मैंने ही देखा था श्रवण कुमारमय इतिहास का उल्लास
और उसमें पगी
हँसा था अपनी सर्वश्रेष्ठ हँसी
मैं ही देख रहा श्रवण कुमार विहीन यह समय
और इसमें जीने-सा कुछ बेस्वाद ।