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एक लहर विशाल... / आलोक श्रीवास्तव-२

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तुम मुझे ले जाती हो इस पृथ्वी की निर्जन प्रातों तक
अक्लांत धूसर गहन रातों तक

तुम्हारे होने से ही खिलता है नील-चंपा

मैंने तुम्हें देखा, पाया वह उन्नत भाव समन्वित
जो मानवता का अब तक का संचय

तुम नहीं रूप, नहीं आसक्ति, नहीं मोह, नहीं प्यार
जीवन का एक उदास पर भव्य गान
अम्बुधि से उठी एक लहर विशाल
जिसमें भीगा मेरा भाल...