Last modified on 17 अप्रैल 2011, at 04:49

गुस्से में प्यार / विमल कुमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:49, 17 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= विमल कुमार |संग्रह=बेचैनी का सबब / विमल कुमार }} {{KK…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक दिन तुम्हें
मुझे पर बहुत गुस्सा आया
उस गुस्से को देखकर
रह गया मैं बहुत दंग

सोचता रहा जबकि नहीं चाहिए था यह सोचना
क्या उस गुस्से में भी
छिपा है
कहीं तुम्हारे प्यार का कोई रंग

पर बता दूं तुम्हें
मैं नहीं किसी ख़ुशफ़हमी में

भले ही इस बेंच पर पी है अंतरंग होकर
मैंने कई शाम
चाय तुम्हारे संग ।