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जब तेरी समन्दर आँखों में / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ये धूप किनारा शाम ढले
मिलते हैं दोंनो वक्त जहाँ
जो रात न दिन, जो आज न कल
पल भर में अमर, पल भर में धुंआँ
इस धूप किनारे, पल दो पल
होठों की लपक, बाँहों की खनक
ये मेल हमारा झूठ न सच
क्यों रार करें, क्यों दोष धरें
किस कारण झूठी बात करें
जब तेरी समन्दर आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोयेंगे घर-दर वाले
और राही अपनी राह लेगा