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अलबम के आँसू / विमल कुमार

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मैंने तुम्हें एक दिन
लाने को कहा था
अपना अलबम
चाहता था मैं देखना
उसमें बचपन की तुम्हारी तस्वीरें
कैसी थीं तुम स्कूल में
फ़्रॉक कर रंग कैसा था तुम्हारा
और कालेज के दिनों में तुम कैसी दिखती थी

चाहता था मैं यह भी देखना
तुम्हारी माँ कैसी है
क्या मेरी माँ की तरह
पीठ पर हैं उनके भी ज़ख़्म
क्या सपने उनके भी हैं टूटे हुए कटी हुई पतंगों की तरह
और तुम्हारे पिता की मूंछें
क्या मेरे पिता से भी मिलती हैं

चाहता था मैं यह जानना
तुम्हारा घर कैसा है
क्या मेरे घर की तरह चूता है
काँपती हैं उसकी भी दीवारें
और किवाड़ में बोलते रहते हैं झिंगुर रात में
खिड़कियाँ रहती हैं गुमसुम
उदास परियों की तरह
आँगन में नीम के तले
ख़ुशी का कोई टुकड़ा है
तुम्हारे यहाँ भी फैला धूप में

पर तुम नहीं लाई
लाख कहने पर भी
अपना अलबम
क्या चाहती थी तुम
मुझसे छिपाना
उन तस्वीरों के दर्द?
उनके पते?
तुमने भी कभी नहीं माँगा मुझसे मेरे घर का कोई अलबम
तुम क्यों नहीं चाहती थी जानना
उन ब्लैक एंड व्हाईट ज़माने की तस्वीरों की कहानियाँ

क्या तस्वीरें अपने वक़्त का
इतिहास बताते हुए
रोने लगती हैं नई-नवेली दुल्हनों की तरह
और उनकी आँखों से
बहते हैं आँसू
अलबम से अगर कोई
आँसू गिरे
तो मैं भी उन तस्वीरों को नहीं चाहूँगा देखना
तस्वीरों के ज़ख़्म
आदमी के ज़ख़्म से
ज़्यादा गहरे होते हैं

शायद यही कारण है
कि तुम आज तक नहीं
लाई मेरे पास अपना अलबम
मैं तो अपनी यादों का
कोई अलबम भी नहीं
चाहता बनाना
और इसलिए
अपनी कोई तस्वीर नहीं
खींचना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ मेरी
एक भी तस्वीर नहीं है
जो बीते हुए वक़्त की
याद दिला सके मुझे
जो बहुत कड़वी हो चली है
इस शाम के धुंधलके में
जब बारिश बहुत तेज़ हो गई है
अचानक