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देखत नंद कान्ह अति सोवत / सूरदास

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देखत नंद कान्ह अति सोवत ।
भूखे गए आजु बन भीतर, यह कहि-कहि मुख जोवत ॥
कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोऊ बीर ।
बार-बार तनु पोंछत कर सौं, अतिहिं प्रेम की पीर ॥
सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम ।
सूरदास प्रभु कैं ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥

भावार्थ:--श्रीनन्द जी देख रहे हैं कि कन्हाई गाढ़ी निद्रा में सो रहे हैं ।`आज यह वन में भूखा ही गया था ।' यह कह-कहकर (अपने लाल का) मुख देखते हैं ।`ये दोनों भाई अपनीही हठ करने वाले हैं, दूसरे किसी का कहना नहीं मानते ।' (यह कहते हुए व्रजराज) बार-बार हाथ से (पुत्रों का) शरीर पोंछते (सहलाते) हैं, प्रेम की अत्यन्त पीड़ा उन्हें हो रही है । जहाँ श्याम-बलराम सो रहे थे, वहीं अपनी भी शय्या उन्होंने मँगा ली । सूरदास जी कहते हैं कि (आज) व्रजराज मेरे स्वामी के पास ही सोये, श्रीनन्दरानी भी(वहाँ) पुत्रों के साथ ही सोयीं ।