भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:17, 18 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग कान्हरौ


आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया ।
गाइनि माँझ भए हौ ठाढ़े, कहति जननि, यह बड़ी कुबेरिया ॥
लरिकाई कहुँ नैकु न छाँड़त, सोइ रहौ सुथरी सेजरिया ।
आए हरि यह बात सुनतहीं, धाए लए जसुमति महतरिया ॥
लै पौढ़ी आँगनहीं सुत कौं, छिटकि रही आछी उजियरिया ॥
सूर स्याम कछु कहत-कहत ही बस करि लीन्हें आइ निंदरिया ॥

भावार्थ :-- माता कहती हैं, `कन्हाई ! सायंकाल हो गया, अब आ जाओ । यह बहुत कुसमय में तुम गायों के बीच में खड़े हो । (इस समय गायें बछड़ों को पिलाने के लिये उछलकूद करती हैं, कहीं चोट न लग जाय) तुम तनिक भी लड़कपन नहीं छोड़ते, अब तो स्वच्छ पलंग पर सो रहो ।' यह बात सुनते ही श्यामसुन्दर आ गये । माता यशोदा जी ने दौड़कर उन्हें गोद में उठा लिया । अच्छी चाँदनी फैल रही थी, अपने पुत्र को लेकर (माता) आँगन में ही (पलंग पर) लेट गयीं ! सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर कुछ बातें करते ही थे कि निद्रा ने आकर उन्हें वश में कर लिया । (बातें करते-करते वे सो गये ।)