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गोविन्द आज तुम नहीं हो / त्रिलोचन

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गोविन्द,

आज तुम नहीं हो

नहीं हो गोविन्द !


चाहता हूँ : होते तुम

कितना अच्छा होता

संग होता साथ होता

आखें देखतीं तो तुम्हें

बाहें बांधती तो तुम्हें

गोविन्द !


गोविन्द,

आज तुम नहीं हो

कहाँ खोजूँ

कहीं नहीं हो

पता नहीं कहाँ हो

पता नहीं कहाँ हो

पता दोगे अपना ?--

तुम्हें पत्र लिखने की

इच्छा हो आती है बार-बार

कहाँ लिखूँ ?

पता नहीं कहाँ हो

पता दोगे अपना

बिना कुछ कहे सुने

अकस्मात

एक दिन

कहाँ तुम चले गए


तुमको क्या यह भय था

मेरी बाँहें बांध लेतीं

तुम्हें मुक्ति न मिलती

इतना अविश्वास था

फिर भी तुम मुझ को विश्वासपात्र कहते रहे

मेरी अनुपस्थिति में तुम जो यूँ चल दिए

कुछ अच्छा नहीं किया


भैया,

आज तुम न जाने कहाँ हो


सोचता हूँ

तुमको अचानक मैं कभी कहीं

पकड़ पाता

तो कहता :

देखा,

तुम्हें खोज लिया

खोज लिया और छिपो


किन्तु हाय

व्यर्थ सब विचार, व्यर्थ सब उपाय

आ जाते हैं अनन्त अन्तराय

सुनता हूँ वह तुम्हारा रूप दग्ध हो चुका

गंगा की तरंगें राख भी समेट ले गईं

अब भी तुम हो क्या, कहीं

कहाँ हो ?


आँखें तुम्हें देख अब नहीं पातीं

कान में तुम्हारे स्वर नहीं पड़ते

बाहें भी तुम्हारी अब न' बनती हैं कण्ठहार


किन्तु मन बार-बार

तुम्हारा ध्यान करता है

बातें भी होती हैं

प्रसंग सब पुराने वही

किन्तु रस नित्य नया


भैया,

तुम कैसे हो

कहाँ हो

स्वस्थ हो कि नहीं

कभी-कभी मेरी भी याद तुम्हें आती है ?

कहो, कभी मेरी भी याद तुम्हें आती है ?