भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन चाहे यह / अनिल जनविजय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं

दिल नहीं करता अब

यहाँ विदेश में रहने का


मन चाहे यह

मैं अपने भूखे-नंगे

जन-गण के पास जाऊँ


कष्ट में है जो पीड़ा में

है दुश्मन के फेरे में

साम्प्रदायिकता के घेरे में

तकलीफ़देह, घुटन भरे हैं दिन

उन्होंने डुबो दिया मेरे जन-गण को

मन्दिर-मस्ज़िद के अँधेरे में


काल है यह बदतर अन्यायी

उजाले पर

फिरी हुई है स्याही

निराशा भरे इस विकट समय में

साथ उसका निभाऊँ

मैं अपने जन-गण के पास जाऊँ


(2004 में मास्को में रचित)