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अट नहीं रही है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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अट नहीं रही है

आभा फागुन की तन

सट नहीं रही है।


कहीं साँस लेते हो,

घर-घर भर देते हो,

उड़ने को नभ में तुम

पर-पर कर देते हो,

आँख हटाता हूँ तो

हट नहीं रही है।

पत्‍तों से लदी डाल

कहीं हरी, कहीं लाल,

कहीं पड़ी है उर में,

मंद-गंध-पुष्‍प माल,

पाट-पाट शोभा-श्री

पट नहीं रही है।