भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेह क्या बरसा / महेश अनघ
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:00, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश अनघ |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> मेह क्या बरसा घरों क…)
मेह क्या बरसा
घरों को लौट आए
नेह वाले दिन
हाट से लौटे कमेरे
मुश्किलों से मन बचा कर
लौट आए छंद में कवि
शब्द की भेड़ें चरा कर
मेह क्या बरसा
भले लगने लगे हैं
स्याह काले दिन
कोप घर से लौट
धरती ने हरी मेंहदी रचाई
वीतरागी पंछियों ने
गीतरागी धुन बनाई
मेह क्या बरसा
लगे मुरली बजाने
गोप ग्वाले दिन
कुरकुरे रिश्ते बने
कड़वे कसैले पान थूके
उमंगें छत पर चढ़ीं
मैदान में निकले बिजूके
मेह क्या बरसा
सभी ने हाथ में लेकर
उछाले दिन