भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम भी भूखे / महेश अनघ
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:03, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश अनघ |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> हम भी भूखे तुम भी भूख…)
हम भी भूखे तुम भी भूखे
और बीच में वर्जित फल है
हाय समय वर्जित साँकल
जिस पर मन सुगबुग होता है
आता वही तीर की जद में
वसुधा भर कुटुम्ब कहना है
रहना है अपनी सरहद में
हम भी काले तुम भी काले
दोनों का उपनाम धवल है
अभिलाषा अभिसार उमंगें
सब झाँसे हैं सप्तपदी के
हम अगिया बैताल उठाए
खोज रहे हैं घाट नदी के
पीना मना नहाना वर्जित
कलसे में पूजा का जल है
अतिमानव आचरण हमारे
पशु होने को ललचाते हैं
बोधिवृक्ष के नीचे आकर
कितने बौने रह जाते हैं
बाहर से शालीन शिखर हम
भीतर लावा-सी हलचल है