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तबियत / वीरेंद्र आस्तिक
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जो अपनी तबियत को
बदल नहीं सकते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
नये सूर्य को मिलते हैं
फूटे दर्पण
नए-नए पाँवों को-
गड़े कील से
मन
ध्वस्त लकीरों के बाहर
आते डरते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
कोल्हू से अर्थों में
बार-बार घूमे
बँधे-बँधे मिथकों से
खुलकर क्या झूमे
आत्ममुग्ध होकर
अपने को ही छलते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
कभी नए बिम्बों का
बादल तो बरसे
अपने हाथ बुनी नीड़ों का
मन तरसे
साहस मार-मार कर
लीकों पर चलते