भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ-बेटी / सरोज परमार

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:40, 20 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बरसों पहले नानी ने
माँ से कहा था
तुम फलांगना चाहती हो पहाड़
झाँकना चाहती हो बादलों के पार
पाना चाहती हो सागर के पानियों की थाह
मुई! तुझे कैसे समझाऊँ ?
आकाश से लटके रहते हैं कुछ उक़ाब
पलक झपकते ही पंजों में दबोच ले जाएँगे
पहाड़ों की खोहों में छिपे कुछ जिन्न
सूँघ लेंगे तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू.
सागर के पानियों में बैठे हैं
कुछ घड़ियाल.
सच तो यह है कि पानी , पहाड़
आकाश किछ भी नहीं है
औरत के लिए.
उसे झूलने हैं केवल इन्द्रधनुषी झूले.
माँ ने अपनी नन्हीं -सी छाती में सहेज लिया था
यह कड़वा-सा सच.
बरसों बाद माँ ने अपनी
बेटी से कहा
तुझे फलाँगने हैं पहाड़
तुझे जाना है बादलों के पार
तुझे पानी है पानियों की थाह
तुझे नहीं झूलने इन्द्रधनुषी झूले.
तुझे लिखना है आकाश की छाती पर
अपने तर्जनी से एक इतिहास
तुझे पालना है सागर की कोख में
अनन्त विश्वास
तुझे फलाँगना है हिमालय का अभिमान
तुझे तोड़नी है मिथक
औरत की हर सफलता का रास्ता
जिस्म से हो कर नहीं गुज़रता.