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माँ के नाम का चिराग़ / अमरजीत कौंके

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घर को कभी न छोड़ने वाली माँ
उन लम्बे रास्तों पर निकल गई
जहाँ से कभी कोई लौट कर नहीं आता

उसके जाने के सिवा
सब कुछ उसी तरह है

शहर में उसी तरह
भागे जा रहे हैं लोग
काम-धंधों में उलझे
चलते कारखाने
काली सड़कों पर बेचैन भीड़
सब कुछ उसी तरह है।

उसी तरह
उतरी है शहर पर शाम
ढल गई है रात
जगमगा रहा है शहर सारा
रौशनियों से

सिर्फ़ एक माँ के नाम का
चिराग़ है बुझा...।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : सुभाष नीरव