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वह लड़की-दो / ओम पुरोहित ‘कागद’

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मेरे सपनों में
प्रतिदिन
एक लड़की आती है
जो जागते में
अक्सर इधर-उधर
नज़र भी आ जाती है।

आवरा भाई
और बेसहारा मां-बाप की
एकमात्र सहारा है वह
दिन भर
धुए से धुआंती है,
जिस रात
घर से निकलती है
चटनी भर नमक-मिर्च
दो टंक आटा
कपड़े के दो वार चिथड़े
दिन भर के लिए
मुठ्ठी भर
हाथ खर्च बन कर लौटती है।

हर तरह से
मन को मार चुके
उसके बूढे़ मां-बाप
उसे हर रोज
रसोई की बदबू से निकल कर
पायल छनकाते
अंधेरे में गायब होता
देखते है
मगर
हर बार
उनका ऎतराज
दम तोड़ देता है
जब वह
सुबह
दूध में चूरी हुई
मुलायम रोटी बन कर लौटती है।

भाई को
उसका घर से निकलना
कभी अच्छा नहीं लगा
इसलिए वह
हर शाम
पूरी बोतल ताड़ी पीता है
और
साड़ी के पल्लू की गांठ खोल
जब वह
दस-दस के दो नोट
उसकी हथेली पर रखती है
उसे
सावित्री से कभी कम
नज़र नहीं आती।
रात को दरोगा
उसके घर के बाहर
गश्त के वक्‍त
सीटी क्यों बजाता है
उसे ऎतराज है
मगर
आवारागर्दी के आरोप में
जब वह पकड़ा जाता है
और वह लडकी
जमानत बनती है
तब उसके सारे ऎतराज
उन्नीसवीं सदी हो जाते है।

दफ्तर में
दिन भर
उसकी कजरारी आंखों
गदराये बदन
और मटकती चाल पर
चर्चाएं होती हैं
मगर
उन में
मेरी जीभ नहीं होती
कान होते है।

वह लड़की
दिन भर
राह्गीरों
सहकर्मियों को सहती है
और मौन रहती है
यह उसकी मजबूरी है
मगर
सालती है सपनों में
मुझे उसकी उदास आंखें
कि, कानों के साथ-साथ
मेरे लिए भी
एक; अदद जीभ का होना,
बहुत जरूरी है।