भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ तुझ को है ख़बर / मजाज़ लखनवी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:41, 25 अप्रैल 2011 का अवतरण
कुछ तुझ को है ख़बर हम क्या क्या ऐ शोरिश-ए-दौराँ भूल गए
वह ज़ुल्फ़-ए-परीशाँ भूल गए, वह दीद-ए-गिरयाँ भूल गए
ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए नज़रों में कोई सूरत ही नहीं
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कीजिए हम सूरत-ए-जानाँ भूल गए
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं अब दिल की कली खिलती ही नहीं
ऐ फ़स्ले बहाराँ रुख़्सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहाराँ भूल गए
सब का तो मदावा कर डाला अपना ही मदावा कर न सके
सब के तो गिरेबाँ सी डाले, अपना ही गिरेबाँ भूल गए
यह अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिए
एक नश्तर-ए-ज़हरआगीं रख कर नज़दीक रग-ए-जाँ भूल गए