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पद 211 से 220 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1

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पद संख्या 211 तथा 212

(211)
 
कबहुँ रघुबंसपनि! सो कृपा करहुगे।
जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र खल नर तरे,
तिन्हहिं सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे।1।

जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि,
अधम आचरन कछु हृदय नहिं धरहुगे।
दीनहित! टजित सरबग्य समरथ प्रनतपाल ,
 चित मृदुल निज गननि अनुसरहुगे।2।

मोद-मद-मान-कामादि खलमंडली,
 सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे।।
 जोग -जप-जग्य -बिग्यान ते अधिक अति,
अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे।3।

मदजन-मौलिमनि सकल, साधन-हीन,
कुटिल मन, मलिन जिय जानि जो डरहुगे।
दासतुलसी बेद-बिदित बिरूदावली,
बिमल जस नाथ! केहि भाँति बिस्तरहुगे।4।
  
(212)
 
रघुपति बिपति-दवन।
परम कृपालु , प्रनत -प्रतिपालक , पतित- पवन।1।

क्रूर, कुटिल, कुलहील, दीन, अति मलिन जवन।
सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन।2।

गज-पिंगिला-अजामिल-से खल गनै धौं कवन।
तुलसिदास प्रभु केेहि न दीन्हि गति जानकी -रवन।3।