भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब उजाले की कहीं / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:38, 29 अप्रैल 2011 का अवतरण
जब उजाले की कहीं
जब उजाले की कहीं कोई, किरण दिखती नहीं,
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें?
हर गली में हो रहे हैं
कोबरों के विषवमन
तस्करों से घिर गये हैं
चन्दनों के आज वन
मंजिलों तक जा पहुंचने की डगर मिलती नहीं,
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें?
इन्द्रधनुषी करतबों में बात की बाजीगरी
पंख नुचने से हुयी है आज चिड़िया अधमरी
व्यथित मन में जब नयी सम्भावना खिलती नहीं
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें?
चांदनी के नाम बंटती
हर कहीं पर दोपहर
घुल गये संवेदना में
स्वार्थ के मीठे जहर,
लेखनी भी मन हमारे अब अनल भरती नहीं,
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें?