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विनयावली / तुलसीदास / पद 231 से 240 तक / पृष्ठ 5

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जाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो। सोइ सुसील, पुनीत , बेदबिद, बिद्या-गुननि भर्यो।1।

उतपति पांडु -सुतनकी करनी सुनि सतसंग डर्यो।

ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तर्यो।2। 

जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसर्यो। बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधर्यो।3।

ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जर्यो। 

अजर-अमर , कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मर्यो।4।

बिप्र अजामिल अरू सुरपति तें कहा जोे नहिं बिगर्यो। उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हर्यो।5।

गनिका अरू कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबर्यो। तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धर्यो।6।

केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि पर्यो। तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर्यो।7।

(240) सोच सुकृती , सुचि साँचो जाहि राम ! तुम रीझे।

गनिका ,गीध,बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे।1। 

कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये। गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सुनाभ बाहन तजि धाये।2।

सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो। बायों दियो बिभव कुरूपति को, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो।3।

मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।
तुलसी सहज सनेह राम बस , और सबै जलकी चिकनाई।4।