भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भायला तूं सैर मती आइजे / सुनील गज्जाणी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:01, 4 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनील गज्जाणी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem>भायला तू सैर म…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भायला तू सैर मती आइजै
सौ कीं हर लेवै है मिनखा रौ
स्यात इण वास्तै ही ओ सैर है
अठै बड़ी-बड़ी इमारतां है
पण लाम्बा-लाम्बा खेत नीं है
अर रूखां रौ नांव नीं है।

भायला ! तूं सैर मती आइजै
अठै रा रैवणियां
कैद्‌यां जैड़ौ जीवण जीवै है
लाइणां बणै है अठै रासण सूं लेय’र
झाझरूं आगै निमटण तांईं।
थूं गाँव रौ मोरियो है
अर अठै है सगळा कागला
थारौ हाल अठै पाणी बिना
मछली जैड़ौ हुय जावैलौ।

भायला ! तूं सैर मती आइजै।
सुण, अठै हवा नीं है ताजी
फुटपाथ माथै ई कटै है कईयां री रात्यां
रोटी-रोजी री खोज मांय भूखा सोवै घणा ई आदमी
जद कै गाँव मांय जिनावर ई सोवै है खूंटी ताण
गाँव मांय मिनख अर अठै बसै है लोग
स्यात तूं समझग्यौ व्हैला
गाँव में संस्कृति है अर अठै सैर में चालगी आथूणी पून
भायला! तूं सैर मती आइजै।