भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बन गई आज कविता मेरी / बलबीर सिंह 'रंग'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:59, 4 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बलबीर सिंह 'रंग' }} {{KKCatGeet}} <poem> युग के आहत उर की पीड़ा …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।
अपने मानव की परवशता
मैंने कवि बन कर पहचानी,
दुख-विष के प्याले पीकर ही तो
सुख मधु की मृदुता जानी,
संघर्षों के वातायन से-
मैंने जग का अंतर झाँका,
जग से निज स्वार्थ कसौटी से
मेरी निश्छलता को आँका,
जग भ्राँति भरा, मैं क्राँति भरा जग से कैसी समता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

संसृति से मुझे अतृप्ति मिली
मैंने अनगिन अरमान दिए,
रोदन का दान मिला मुझको
मैंने मादक मृदु-गान दिए,
व्यवहार-कुशल जग में कवि के
वरदान किसी कब याद रहे,
शशि को दी रजत-निशा मैंने
दिनकर को स्वर्ण-विहान दिए,
लघुता वसुधा में लीन हुई नभ ने ले ली गुरुता मेरी
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

किस रवि की स्वर्णिम-किरणों ने
मम उर-सरसिज के पात छुए,
मेरी हृद-वीणा पर किसके
सोये स्वर जगते राग हुए,
किसने मेरे कोमल उर पर
रख पीड़ाओं का भार दिया,
मैंने किसके आराधन को
अनजाने में स्वीकार किया,
यह प्रश्न उठे, मैं मौन रहा, जग समझा कायरता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।