कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 34
युद्व का अंत
छंद 56,57,58
(56)
बाप दियो काननु, भो आननु सुभाननु सो,
बैरी भो दसाननु सो, तीयको हरनु भो।
बालि बलसालि दलि , पालि कपिराज को,
बिभीषनु नेवाजि, सेत सागर-तरनु भो।।
घोर रारि हेरि त्रिपुरारि-बिधि हारे हिएँ,
घायल लखन बीर बानर बरनु भो।
ऐसे सोकमें तिलोकु कै बिसोक पलही में,
सबहीं को तुलसीको साहेबु सरनु भो।56।
(57)
कुम्भकरन्नु हन्यो रन राम,दल्यो दसकंधरू कंधर तोरे।
पुषनबंस बिभूषन-पूषन-तेज-प्रताप गरे अरि-ओरे।
देव निसान बजावत, गावत, साँवतु गो मनभावत भो रे।
नाचत-बानर-भालु सबै ‘तुलसी’ कहि ‘हा रे! ळहा भैं अहो रे’।57।
(58)
मारे रन रातिचर रावनु सकुल दलि,
अनुकूल देव-मुनि फूल बरषतु हैं।
नाग, नर, किंनर, बिरंचि, हरि , हरू हेरि,
पुलक सरीर हिएँ हेतु हरषतु हैं।
बाम ओर जानकी कृपानिधानके बिराजैं,
देखत बिषादु मिटै, मोदु करषतु हैं।
आयसु भो, लोकनि सिधारे लोकपाल सबै,
‘तुलसी’ निहाल कै कै दिये सरखतु हैं।58।
इति
(लंका काण्ड समाप्त)