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न जाने क्यों तेरी यारी में उलझे / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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न जाने क्यों तेरी यारी में उलझे
ग़मों की हम ख़रीदारी में उलझे
मरीज़ों का है अब भगवान मालिक
कि चारागर ही बीमारी में उलझे
पढ़ें क्या, तय नहीं कर पा रहे हैं
क़िताबों वाली अलमारी में उलझे
अभी हैं इम्तहानों के बहुत दिन
अभी से कौन तैयारी में उलझे
अकल आने लगी है अब ठिकाने
कि आटा, दाल, तरकारी में उलझे
हिमाक़त की ज़रूरत थी जहाँ पर
वहाँ नाहक़ समझदारी में उलझे
तुम्हें भी शायरी आने लगेगी
बशर्ते दिल न मक्कारी में उलझे