फ़ोन / उषा उपाध्याय
कल फ़ोन आया था
लंदन से
मेरे चचेरे भाई का-
घर के सभी लोगों की ख़बर
वहृ ब़डे चाव से दे रहा था –
"अपनी मॉटल तो चकाचक चल रही है, जी !
इस छुट्टियों में
मॉन्टू जानेवाला है
अमरीका
और पिंकी भी अपनी सहेलियों के साथ
जाएगी स्विटज़रलैंड,
तेरी भाभी भी बड़ी चंगी है जी !
लेस्टर के मूर्तिमहोत्सव में
सब से ज्यादा डोनेशन देकर उसने
सबसे पहली आरती उतारी थी,
और मैं ?
ऑह ! मैं कैसा हूँ यह पूछ रहे हो ?
फाईन ! वेरीफाईन !!
लेकिन, तुम सब कैसे हो ?..."
और फिर लं...बी बात चली
घर की, गली की, गाँव की
और खेत की,
अंत में मैं कहने जा रहा था "आवजो"
तभी अचानक उसने पूछा
"अपने खेत में अब भी कोस चलते हैं ?
और...रामजी मंदिर की आरती में
नक्क़ारा कौन बजाता है ?"
ऐसा क्यों लगा कि
जैसे उसकी उत्कंठा-भरी वह आर्द्र आवाज़
खारे पानी में भीग कर आ रही हो
उस के आगे के शब्द हवा में उड़ते रहे
मुझे लगा, जैसे उस के हाथ में
फ़ोन का रिसीवर नहीं
नक्क़ारा बजानेवाली दांडी
अटक गई है...
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा