कलियाँ / उषा उपाध्याय
कलियों ने आँख खोली तो अफवाह फैल गई,
फूलों की डार तोड के दुनिया ये खैल गई ।
अफवाह का अब इस नगर में ढोल बजेगा,
जहाँ  धुआँ  भी  नहीं  है, अंगार  जलेगा,
ग़ालिब बडी गुस्ताख़ है दुनिया की ये रसम,
शैतान  बेफ़िक्र फिरे  अच्छाई  डर गई ।
शबनम का ये गुब्बार गुलाबी उडाएगी,
माहताब को भी दो घड़ी तो ये जलाएगी,
जल्लाद की तलवार को मासूम बताएगी,
सच्चाई को नापाक कहे के दूर हो गई ।
दस्तूर है दुनिया का कभी भी न चैन दे,
ज़ख़्मी जिगर को छाँव रत्ति भर कभी न दे,
दलदल को बहुत प्यार से सिर पर चढ़ाएगी,
और बेतमा बन  पद्मजा  पर पैर रख गई ।
मियाँ बडी क़ातिल है रसम इस सियासी की,
जैसी अदा क़ातिल है सनम और शराब की,
फिरका बनाके यह करे करतूतें ढेर-सी,
फिरदौस बन के फिर यही लो दिल को ले गई ।
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा
	
	