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जिंदगी / नरेश मेहन

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रोज
एक झोंपड़ी का
निर्माण हो रहा है
उसके कोने में
भूख का
एक नई भूख के साथ।
देखता हूँ जब भी
इन झोंपड़ियों में
तपते हुए शरीरों को
चिथड़ों की कैद में
बिलखते बचपन को
तब सोचता हूँ
ज़िन्दगी कैसे सांस ले रही है?
ऊँची-ऊँची मीनारों से
उठता धूआं
लगता है
इनकी सांसो को
कैद कर लेगा।
रोज देखता हूँ
इन ज़िन्दा लाशों को
मानो
ज़िन्दगी सिसक रही है।
जब सारा विश्व सोता है
ठंडी नींद
तब यहां जीवन सुलग रहा होता है।