भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज सचमुच लगा / नरेश अग्रवाल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:50, 8 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश अग्रवाल |संग्रह=नए घर में प्रवेश / नरेश अग्…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज सचमुच लगा,
मेरे बीमार पिता को
एकदम से मेरी जरूरत है
वे धीरे-धीरे बोल रहे थे
बहुत कम विश्वास था
उन्हें ठीक होने का
जितना भी जिया, संतुष्ठ थे उससे
लेकिन एक खालीपन था चेहरे पर
लगता था, प्यार ही भर सकता है जिसे
मैंने धीरे-धीरे हाथ बढ़ाया
अपना हाथ उनके हाथ में लिया
फिर कंधे पर फेरा हाथ
और आखिर में हाथ सिर पर रखकर
बच्चों की तरह प्यार किया
उन्होंने मुझे देखा
थोड़ी अच्छी तरह से
शायद उन्हें लगा,
अभी जीने के कुछ ये ही कारण बचे हैं
उन्हें जीना चाहिए
वे कुछ नहीं बोले
तेजी से आँख मूँदकर
मुँह फेर लिया ।