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खंड-खंड पाखंड / शैलप्रिया

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समय
कई टुकड़ों में विभाजित है
मन भी तो

लगातार चुप रहने से
अर्थ चुक जाता है
दोस्त !
खंडित मन
प्रश्नचिह्न खड़े करता है
आदेशों के खोखलेपन को
कब तक नकारा जाए

इस तरह
ऊबते हुए टूटना है हमेशा-हमेशा

मंज़िल,
मंज़िल सच नहीं है
मंज़िल है ही नहीं
मंज़िल ही अंत है शायद

दोस्त तुझे क्या बताऊँ
अब तक ऊब हो चुकी है खोखलेपन से
संबंधों के निचले हिस्से भी खोखले हैं
जहाँ क्रमशः घिसती जा रही हूँ मैं