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मुझे थोड़ा सा वक्त दे / नरेश अग्रवाल

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मैं अपने छोटे-छोटे कदमों से
कैसे नाप सकूंगा
तेरी इस सर्वोपरि विशालता को?
मेरी आंखों की रोशनी
दूर-दूर तक भटकती है तेरी खोज में
और हर रात
हारकर वापस लौट आती है।
मेरे कान अभी कच्चे हैं
वे तेरे मीठे स्वर एवम्
कोलाहल में विभेद नहीं कर पाते ।
मेरा मन अतिशय भौतिकता में
लिप्त होकर कठोर हो गया है,
वह तेरी फूलों जैसी कोमलता को
आलिंगन करने में असमर्थ है।
मुझे थोड़ा सा वक्त दे
अपने आप को तेरे काबिल बनाने के लिए ।