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चरखे की तरह / नरेश अग्रवाल
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चरखे की तरह घूमती हर चीज को देखता हूं मैं
लगता है इसी तरह से घूमते रहने पर ही
कुछ ठौर मिल सकता है
वरना स्थिर लोगों के लिए
कोई जगह नहीं, कहीं पर भी।
हवा का रुकना गंदगी है,
हल चलते हैं तो खोद डालते हैं जमीन
और सोयी हुई मिट्टी को
जगाकर ले आते हैं बाहर।
मधु लटक रहा है पेड़ों पर
लेकिन वह हमारा नहीं है
वह जिसका है, उसे उसकी जानकारी है
देखना है हमें केवल अपने पांवों को
कि आज ये कितनी दूर तक चले हैं।