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वापसी की इच्छा / नरेश अग्रवाल

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इतनी जल्दी उठने की कोशिश करने पर भी
सुबह उठ नहीं पाये थे हम
अब देर हो गयी थी
जिसे हमें पाना था उसे खो दिया था
अब सूखे-सूखे से पहाड़
और गर्म तप्त झील
किसी में कोई रंग नहीं
क्या करेंगे उन्हें देखकर
अपना रास्ता दूसरी ओर कर लिया हमने
चारों तरफ बाजार की सरगर्मी
धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती हुई
खरीददारी के लिए अनगिनत जगहें
फिर भी यहाँ रहने का मन नहीं करता
हर पल लगता है कोई बुला रहा है
इतने कोलाहल में भी उसी के स्वर
सभी चीजें फीकी यहाँ
वो स्तर जो हमें प्राप्त हुआ था
मन उसी ओर उठना चाहता है
वो उसी ओर जाना चाहता है
जैसे अपनी ठंडी-ठंडी बर्फ से हमें कोई छू रहा हो
हवा ने सुखद होकर मिजाज बदल दिया हो
और इतने बड़े-बड़े दृश्य
मेरे छोटे से हृदय में आकर मिलने लगते हैं
मैं आतुर हो चुका हूँ पूरी तरह से उनके पास जाने के लिए
अब यहाँ अधिक देर तक रूकना कठिन हो रहा है।