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कितने जमाने से / नरेश अग्रवाल

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कितने जमाने से वह
एक ही चीज बना रहा है
पहले मिट्टी को रोंदकर मुखौटे की शक्ल देता है
फिर उसका साथी उसमें रंग भरता है
सारे मुखौटों का आकार और रंग-रूप एक जैसा
एक ही तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त होती है
सभी के चेहरें से,
सभी में एक भोली हंसी
और चेहरा जैसे बेवजह हंसता हुआ
शायद खुश आदमी इसी तरह से हंसते रहते होंगे।
आदिम जाति में कोई बनावट नहीं थीं
और अब तो चेहरे कितने बदल गए हैं
खुशियां भी लाती हैं हंसी क्षण भर को
और इस मुर्झाती हंसी में
होता है भय किसी दूसरी परेशानी के आने का
यह हंसी जैसे बीमारी से तो बचे, लेकिन मौत से नहीं
लेकिन अब वो कलाकार
नये सांचे कहां से लाये नये आदमी की हंसी के
बड़े सस्ते हैं ये मुखौटे
दस रुपये भी कोई दे दे तो उसका एहसान हो
लगातार बनाता जा रहा है वो मुखौटे
लगातार बदलती जा रही है लोगों की हंसी
वो खुद भी शामिल है इसमें।