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चीटियाँ / नरेश अग्रवाल
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सामने चीटियां घूम रही थी
मेरे चाय से भरे कप-प्लेट को देखकर
वे उसके आस-पास मंडराने लगी थी
थोड़ी देर में मेरी अंगुलियों की खुशबू से
मेरे पन्नों के आसपास भी,
जहां लिखी जा रही थी एक कविता
और चीटियां मुझे रोककर
शायद कहना चाहती हों कुछ
जबकि मेरे पास कुछ भी नहीं था उन्हें देने को
फिर भी वे चलती रही
भगाने पर भी लौट-लौटकर आती रही।
मैंने कप प्लेट को दूर हटा कर रख दिया
जैसे यही जड़ हों इनकी मौजूदगी की
अब मिली मुझे राहत
लेकिन तब तक आ चुकी थीं वे
मेरी कविताओं के भीतर।