भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शंकर -स्तवन / तुलसीदास/ पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:48, 9 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=श…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


शंकर -स्तवन-4

 ( छंद 155, 156)

 (155)

सीस बसै बरदा, बदरानि, चढ्यो बरदा, धरन्यो बरदा है।
धाम धतूरो, बिभूतिको कूरो, निवासु जहाँ सब लै मरे दाहैं।।

ब्यली कपाली है ख्याली, चहूँ दिसि भाँगकी टाटिन्हके परदा है।
राँकसिरोमनि काकिनिभाग बिलोकत लोकप को करदा है।।

(156)

 दानि जो चारि पदारथको, त्रिपुरारित्र तिहूँ पुरमें सिर टीको।
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको।।

ता बिनु आसको दास भयो ,कबहूँ न मिट्यो लघु लालचु जीको।
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो नहीं पति पारबतीको।।