भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शंकर -स्तवन/ तुलसीदास/ पृष्ठ 3

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:47, 9 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=श…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


शंकर -स्तवन-3

 ( छंद 153, 154)

(153)

नागो फिरै कहै मागनो देखि ‘न खाँगो कछू’ ,जनि मागिये थोरो।
राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरैं जाचक जीरो ।

नाक सँवारत आयो हौं नाकहि , नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो।
 ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो भोरो।।

(154)

बिषु पावकु ब्याल कराल गरें, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े।
 भूत बेताल सखा, भव नामु दलै पलमें भवके भय गाढ़े।।

तुलसीसु दरिद्र -सिरोमनि , सो सुमिरें दुख-दारिद होहिं न ठाढ़े।
 भौन में भाँग, धतुरोई आँगन, नागेके आगें हैं मागने बाढ़े।।