भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काशी में महामारी / तुलसीदास/ पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:13, 10 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


काशी में महामारी-4

 ( छंद 175, 176)

(175)

लोगनि के पाप कैंधौं ,सिद्ध-सुर-साप कैंधौं,
कालकें प्रताप कासी तिहूँ ताप तई हैं।


ऊँचे, नीचे , बीचके, धनिक,रंक, राजा, राय,
 हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है।

देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी-सी ठई है।

करूनानिधान हनुमान बीर बलवान!
जसरासि जहाँ-तहाँ तैंहीं लूटि लई है।।

(176)

संकर -सहर सर, नरनारि बारिचर,
बिकल ,सकल, महामारी माजा भई है।

 उछरत उतरात हहरात मरि जात,
 भभरि भगात जल-थल मीचुमई है।

 देव न दयाल, महिपाल न कृपालचित,
बारानसीं बाढ़ति अनीति नित नई है।

 पाइ रधुराज! पहि कपिराज रामदूत!
राामहूकी बिगरी तुहीं सुधारि लई है।।