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मैं राख़ होना चाहता हूँ / रवि प्रकाश
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जिसे तलाश कर रहा हूँ,
वो मेरी परछाइयों के साथ
इस शाम में घुल रही है !
बच रहीं हैं कुछ टूटी हुई स्मृतियाँ
जहाँ से अजीब-सी गंध उठ रही है !
टूटे हुए चश्मे,
मन पर बोझ की तरह लटक रहें हैं !
मेरी पहचान को आईने इनकार कर चुके हैं !
खंडहरों में सुलगती बेचैन साँसें
कबूतरों के साथ
शांति की तलाश में भटक गई हैं!
सातवें आसमान पर बैठने की चाहत को,
सात समंदर पार वाले राजा ने क़ैद कर लिया है !
लगता है पूरी की पूरी सदी लग जाएगी
सुलगकर आग होने में ,
मैं राख़ होना चाहता हूँ !
सुलगना,
आग होना,
और राख़ होना
दरअसल शाम को तुम्हारे साथ मिल जाना है !
मैंने देखा है
परछाई, शाम और राख़ के रंग को
सब ताप के बाद की तासीर !