भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुंसिफ़ ही हमको लूट गया / मुकुल सरल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:33, 13 मई 2011 का अवतरण
दिल तो टूटा है बारहा लेकिन
एक भरोसा था वो भी टूट गया
किससे शिकवा करें, शिकायत हम
जबकि मुंसिफ़ ही हमको लूट गया
ज़लज़ला याद दिसंबर का हमें
गिर पड़े थे जम्हूरियत के सुतून
इंतज़ामिया, एसेंबली सब कुछ
फिर भी बाक़ी था अदलिया का सुकून
छह दिसंबर का ग़िला है लेकिन
ये सितंबर तो चारागर था मगर
ऐसा सैलाब लेके आया उफ़!
डूबा सच और यक़ीं, न्याय का घर
उस दिसंबर में चीख़ निकली थी
आह ! ने आज तक सोने न दिया
ये सितंबर तो सितमगर निकला
इस सितंबर ने तो रोने न दिया