भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तम को बाहर करना है/रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
Ramadwivedi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:15, 14 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=रमा द्विवेदी }} <poem> अमावस की रात्रि जैसा, अंतस मे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अमावस की रात्रि जैसा,
अंतस में अंधकार का धरना है।
ग्यान का दीप जला करके,
इस तम को बाहर करना है॥

बुराई पर हुई सत्य की विजय,
यह दीपमालिका कहती है।
कभी सहो न अत्याचार को,
जलती दीपशिखा यह कहती है॥

दरिद्रता की पीठ पर बैठ ,
मानव, पूजन लक्ष्मी का करता है।
होता है दरिद्र और भी वो,
जो भाग्य भरोसे रहता है॥

दीपशिखा यह सिखलाती,
मानव तुमको जलना होगा।
जल-जल कर,तप-तप कर,
जीवन में प्रकाश भरना होगा॥

पुरुषार्थ करोगे यदि मन से,
लक्ष्मी स्वयं ही आयेंगी।
कामनापूर्ण होगी तेरी ,
फिर लौट कभी न जायेंगी॥

अगर दीपावली मनाना हो,
तो प्रेम के दीप जलाओ तुम।
पी जाओ तमस विश्व का तुम,
ऐसी दीपावली मनाओ तुम॥

सच्ची दीपावली तो तब होगी,
जब कोना-कोना उजला होगा।
कमजोर हैं जो तन-मन-धन से,
उनको भी आगे लाना होगा॥

भारत का जन-जन जब,
खुशियों से लहरायेगा।
सही मायनों में तब ही,
मानव दीपावली मनायेगा॥