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जानकी -मंगल/ तुलसीदास / पृष्ठ 18

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।।श्रीहरि।।
    
( जानकी -मंगल पृष्ठ 18)

राम -विवाह -1

 ( छंद 129 से 136 तक)

 तीनि लोक अवलोकहिं नहिं उपमा कोउ।
दसरथ जनक समान जनक दसरथ दोउ।129।

सजहिं सुमंगल साज रहस रनिवासहि।
गान करहिं पिकबैनि सहित परिहासहि।130।

उमा रमादिक सुरतिय सुनि प्रमुदित भई ।
कपट नारि बर बेष बिरच मंडम गई।।

मंगल आरति साज बहरि परिछन चलीं।
जनु बिगसीं रबि उदय कनक पंकज कलीं ।।

 नख सिख संुदर राम रूप जब देखहिं।
सब इंद्रिन्ह महँ इंद्र बिलोचन लेखहिं।।

परम प्रीति कुलरीति करहिं गज गामिनि।
नहिं अघाहिं अनुराग भाग भरि भामिनि।134।

 नेगाचारू कहँ नागरि गहरू न लावहिं।
निरखि निरखि आनंदु सुलोचनि पावहिं । ।

करि आरती निछावरि बरहिं निहारहिं ।
 प्रेम मगन प्रमदागन तन न सँभारहिं।136।

(छंद-17)

 नहिं तन सम्भारहिं छबि निहारहिं निमिष रिपु जनु रनु जए।
चक्रवै लोचल राम रूप सुराज सुख भागी भए।।

तब जनक सहित समाज राजहिं उचित रूचिरासन दए।
कौसिक बसिष्ठहि पूजि राउ दै अंबर नए।17।

(इति जानकी-मंगल पृष्ठ 18)

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